Tuesday, November 30, 2010

क़तरे को इक दरिया समझा...

 क़तरे को इक दरिया समझा...

 मैं भी कैसा पागल हूँ.....

हर सपने को सच्चा समझा...

 मैंभी कैसा पागल हूँ....
तन पर तो उजले कपड़े थे,
 पर जिनके मन काले थे...

उनलोगों को अच्छा समझा मैं भी कैसा पागल हूँ...

बीच दिलों के वो दूरी थी तय करना आसान न था..

आँखों को इक रस्ता समझा मैं भी कैसा पागल हूँ..
पाल-पोसकर बड़ा किया था फिर भी इक दिन बिछड़ गएख़्वाबों को इक बच्चा समझकर ...

Meri gali se wo jab bhi gujarti hogi..

Meri gali se wo jab bhi gujarti hogi...

Mod pe jaake kuch der thaharti hogi...

Bhool jaana mujhko itna aasaan to na hoga...

Dil main kuch toot ke to bikharta hoga..

Saath dekhe the Jo un khwabon ka kaarwaa Gubaar bankar ..

uski aankho me ubharta hoga...

Koi jab choomta hoga use baanho me lekar..

Mera pyar badan me uske siharta hogaUski julfon k...

करीब आने की कोशिश तो मैं करूँ लेकिन

करीब आने की कोशिश तो मैं करूँ लेकिन
हमारे बीच को फांसला दिखाई तो दे .......



अब उस कलम से कसीदे लिखाये जाते हैं
वही कलम जो कभी इन्कलाब लिखता रहा .......


ये और बात की काँधों पे ले गये हैं उसे
किसी बहाने से दीवाना आज घर तो गया .........


अख़बारों से डर लगने लगा है
सो अब मैं देर तक सोने लगा हूँ .........


शायरी में मीरो ग़ालिब के जमाने अब कहाँ
सोहरतें जब इतनी सस्ती हैं अदब देखेगा कौन .......


बहुत सताते हैं रिश्ते जो टूट जाते हैं
खुदा किसी को भी तौफीके आशनायी न दे ...