Tuesday, November 30, 2010

क़तरे को इक दरिया समझा...

 क़तरे को इक दरिया समझा...

 मैं भी कैसा पागल हूँ.....

हर सपने को सच्चा समझा...

 मैंभी कैसा पागल हूँ....
तन पर तो उजले कपड़े थे,
 पर जिनके मन काले थे...

उनलोगों को अच्छा समझा मैं भी कैसा पागल हूँ...

बीच दिलों के वो दूरी थी तय करना आसान न था..

आँखों को इक रस्ता समझा मैं भी कैसा पागल हूँ..
पाल-पोसकर बड़ा किया था फिर भी इक दिन बिछड़ गएख़्वाबों को इक बच्चा समझकर ...

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